Lie Detector and Truth: देश की राजधानी दिल्ली के कंझावला कांड में हत्या या दुर्घटना में मौत तय करने के लिए आरोपियों के लाई डिटेक्टर टेस्ट की मांग की गई. इससे पहले श्रद्धा वालकर हत्याकांड में भी उसके लिव-इन पार्टनर और मामले में मुख्य आरोपी आफताब अमीन पूनावाला का भी लाई डिटेक्टर टेस्ट किया गया. झूठ पकड़ने वाले इस टेस्ट का इस्तेमाल बर्कले के कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय में साल 1921 के दौरान हुए अपराधों की तह में जाने के लिए भी इस्तेमाल किया गया था. साफ है कि पॉलीग्राफ टेस्ट का इस्तेमाल होते हुए करीब 100 साल से ज्यादा हो चुके हैं. फिर भी इसकी विश्वसनीयता पर बार-बार सवाल खड़े होते रहते हैं.
सबसे पहले बात करते हैं कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय की महिला डॉर्मेट्री में एक के बाद एक हुई अपराधिक घटनाओं में पॉलीग्राफ टेस्ट के इस्तेमाल की. दरअसल, इस डॉर्मेट्री में 18 और 19 साल की 90 लड़कियां रहती थीं. शुरुआत में उनके सिल्क अंडरगार्मेंट्स, किताबें, लेटर्स और ऐसी चीजें गायब होनी शुरू हुईं, जिनको लेकर लड़कियां लापरवाह रहती थीं. इसके बाद स्टूडेंट्स की अलमारियों से उनके कपड़े और पैसे चोरी होने शुरू हो गए. इसके बाद लड़कियों की महंगी डायमंड रिंग्स और ज्यादा पैसे चोरी होने लगे. इसके बाद वार्डेन ने पुलिस को चोरियों की जानकारी दी.
ये भी पढ़ें – शरीर में दिखें ये लक्षण तो समझ लें होने वाली है मौत, आसानी से पहचाने जा सकते हैं संकेत
किसने बनाई लाई डिटेक्टर मशीन?
कैलिफोर्निया में मॉडर्न पुलिसिंग के जनक के तौर पर पहचाने जाने वाले तत्कालीन पुलिस चीफ ऑगस्ट वॉल्मर ने पुलिस ऑफिसर जॉन लार्सन के बनाए उपकरण के इस मामले में इस्तेमाल की मंजूरी दे दी. महज 29 साल के लार्सन ने साइंस की पढ़ाई की थी. वह फिजियोलॉजी में डॉक्टरेट थे. उन्हें उस दौर में थोड़ा सनकी पुलिस अधिकारी माना जाता था. लार्सन ने इस मामले से पहले अपने इस झूठ पकड़ने वाले उपकरण का बहुत कम लोगों पर ही परीक्षण किया था. एक तरह से कहा जाए तो ये किसी अपराध के मामले में शक के घेरे में आए लोगों की जांच के लिए इस उपकरण के इस्तेमाल का ये पहला मामला था.

लाई डिटेक्टर मशीन को कैलिफोर्निया के पुलिस ऑफिसर जॉन लार्सन ने बनाया था.
क्या चोर को पकड़ पाए जॉन लार्सन?
हाउसमास्टर और सभी लड़कियों की मंजूरी मिलने के बाद उन्होंने शक के घेरे में आई लड़कियों की लाई डिटेक्टर मशीन की मदद से जांच की. लार्सन ने बाद में लिखा कि लाई डिटेक्टर टेस्ट के दौरान सवाल साधारण होने चाहिए. सवालों को इस तरह बनाना चाहिए कि जवाब सिर्फ हां या ना में दिया जा सके. उन्होंने लिखा कि पॉलीग्राफ टेस्ट पूछताछ के बजाय वैज्ञानिक आधार पर जांच करता है. ये अपराधियों को फंसाने का उपकरण या पद्धति नहीं है. लार्सन ने कैलिफोर्निया यूनिवर्सिटी के मामले में सबसे पहले उस लड़की का टेस्ट किया, जिसने अपनी डायमंड रिंग चोरी होने की शिकायत की थी. धीरे-धीरे जांच आगे बढ़ती गई और एक लड़की हेलेन ग्राह्म पर आकर जांच रुक गई. बाद में हेलेन ने नींद में चोरी करने की बात स्वीकार की.
ये भी पढ़ें – गहरी और आरामदायक नींद के लिए कितने पर चलाएं AC, कितने पर नहीं होगा शरीर को नुकसान?
क्या और कैसे होता है लाई डिटेक्टर टेस्ट?
किसी अपराध के मामले में ये पता करना काफी मुश्किल होता है कि जांच के दायरे में आया कोई व्यक्ति झूठ बोल रहा है या सच. इसी का पता लगाने लिए लाई डिटेक्टर टेस्ट किया जाता है. इसे पॉलीग्राफ टेस्ट भी कहा जाता है. इस टेस्ट में एक खास मशीन का इस्तेमाल होता है. आम लोग इसे झूठ पकड़ने वाली मशीन भी कहते हैं. ये एक ऐसी मशीन है, सवालों और जवाबों के दौरान शरीर में आने वाले बदलावों को रिकॉर्ड करती है. फिर कुछ ग्राफ्स और पैरामीटर के आधार बताती है कि व्यक्ति झूठ या सच में क्या बोल रहा है. दरअसल, टेस्ट के दौरान अगर व्यक्ति झूठ बोल रहा है तो उसके दिल की धड़कन तेज होगी. उसका ब्लड प्रेशर बढ़ेगा और पसीना आने लगेगा. पॉलिग्राफ मशीन ऐसे ही शारीरिक बदलावों को पकड़कर तय करती है कि व्यक्ति झूठ बोल रहा है या नहीं.
क्यों उठते रहे हैं पॉलीग्राफ टेस्ट पर सवाल?
पॉलीग्राफ टेस्ट की शुरुआत से लेकर अब तक बार-बार इसके नतीजों की प्रमाणिकता को लेकर सवाल उठते रहे हैं. अमेरिका की सायकोलॉजिकल एसोसिएशन के विशेषज्ञों के मुताबिक, पूछताछ के दौरान शरीर में होने वाले बदलाव ये यह तय नहीं किया जा सकता कि जांच के दायरे में आया व्यक्ति कुछ छिपा रहा है या झूठ बोल रहा है. अमेरिका ही नहीं कई देशों की सरकारों का मानना है कि झूठ पकड़ने के लिए सिर्फ लाई डिटेक्टर टेस्ट पर्याप्त नहीं होता है. कई बार पूछताछ करने वाले व्यक्ति के सच बोलने के बाद भी कहते रहते हैं कि तुम झूठ बोल रहे हो. इससे व्यक्ति घबराने लगता है. पॉलीग्राफ टेस्ट में घबराहट को झूठ बोलना माना जाता है. लिहाजा, इसकी प्रमाणिकता पर सवाल उठते हें.

15 मिनट की ट्रेनिंग के बाद ज्यादातर लोग इस टेस्ट के दौरान मशीन को धोखा दे सकते हैं.
अमेरिका की नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेस के मुताबिक, 15 मिनट की ट्रेनिंग के बाद ज्यादातर लोग इस टेस्ट के दौरान मशीन को धोखा दे सकते हैं. फिर सवाल उठता है कि पुलिस जांच में इसका इस्तेमाल बार-बार क्यों किया जाता है? विशेषज्ञों का मानना है कि बेशक ये टेस्ट किसी सटीक नतीजे पर नहीं पहुंचा पाए, लेकिन जांच अधिकारियों को सही दिशा देने में काफी हद तक कामयाब रहता है.
ये भी पढें – नगालैंड ईसाई बहुल राज्य, फिर क्यों चला बीजेपी का जादू, कैसे मिला बहुमत?
मशीन को कैसे चकमा दे सकता है इंसान?
इंसान कई हालात में लाई डिटेक्टर टेस्ट की प्रमाणिकता पर असर डालकर धोखा दे सकता है. पॉलीग्राफ टेस्ट में सवाल सुनने और जवाब देने के समय हार्टबीट असामान्य तरीके से बढ़ने पर कहा जाता है कि व्यक्ति झूठ बोल रहा है. अब अगर व्यक्ति सुई चुभोकर या खुद को दांतों या चुटकी से काटकर पहले से ही अपनी धड़कन को बढ़ा ले तो पूरी पूछताछ के दौरान उसकी हार्टबीट सामान्य ही लगेगी. इससे जांच पर असर पड़ेगा.
वहीं, विशेषज्ञों का मानना है कि अगर पूछताछ से पहले व्यक्ति भरपूर नींद ले तो लाई डिटेक्टर टेस्ट के नतीजों पर असर डाल सकता है. वहीं, अधिकारी पूछताछ के दौरान बार-बार कहते हैं कि व्यक्ति झूठ बोल रहा है तो वह घबराने लगता है. घबराहट को जांच में झूठ की निशानी माना जाता है. इसलिए इस टेस्ट की विश्वसनीयता पर सवाल उठते रहते हैं.
ब्रेकिंग न्यूज़ हिंदी में सबसे पहले पढ़ें News18 हिंदी| आज की ताजा खबर, लाइव न्यूज अपडेट, पढ़ें सबसे विश्वसनीय हिंदी न्यूज़ वेबसाइट News18 हिंदी|
Tags: Crime News, Lie detector tests, Police investigation, Polygraph Test
FIRST PUBLISHED : March 03, 2023, 15:17 IST